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November 22, 2024

समाचार पत्र और मीडिया है लोकतंत्र के प्राण, इसके बिन हो जाता है देश निष्प्राण।

कोविड का टीका : क्या हम सही सवाल पूछ पा रहे हैं?

1 min read
  • प्रमोद रंजन

19 वीं सदी के एक महान दार्शनिक ने पाया था कि गहन समस्याओं के जो उत्तर बुद्धिजीवीगण प्रस्तुत कर रहे हैं, न सिर्फ वे गलत हैं, बल्कि उनके सम्मुख जो प्रश्न हैं, वे भी गलत हैं। कोविड के टीका से संबंधित ऐसे ही अनेक भ्रामक प्रश्न जनता के सामने रख दिए गए हैं, जिनके उत्तर की तलाश में हम एक निर्धारित वर्तुल में लंबे समय तक नाचते रह सकते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे अपनी पूंछ पकड़ने की कोशिश करता एक पालतू पशु नाचता है, या जैसे कोल्हू में जुता कोई बैल चलता है।

  • भारतीय जनता के सामने जो सवाल रखे गए हैं, उनमें मुख्य निम्नांकित हैं :
  • सरकार सभी लोगों को कोविड का मुफ्त टीका देने में आनाकानी क्यों कर रही है?
  • सरकार ने आनन फानन में, बिना क्लिनिकल ट्रायल के पर्याप्त आंकड़ों के, एक टीके के प्रयोग की मंजूरी क्यों दे दी?
  • इन टीकों पर विश्वास किया जाए या नहीं, ये कारगर होंगे भी या उल्टा हमें नुकसान पहुंचाएंगे?

इन सवालों के उत्तर के लिए लोग जिन बातों के इर्दगिर्द चक्कर लगा रहे हैं, उनमें से मुख्य हैं :

  •  सरकार उदार नहीं है। वह गरीब और मध्यम वर्ग की आर्थिक कठिनाइयाँ नहीं समझती। इसलिए वह सबको मुफ्त टीका देने में आनाकानी कर रही है। अगर एक टीके की कीमत एक हजार रूपए है एक परिवार में बच्चे, जवान, बूढ़े मिलाकर 10 लोग भी हैं तो वे दो बार लगने वाले इन टीकों के लिए 20 हजार रूपए कहां से लाएंगे? सरकार को इस संकट की घड़ी में अपना खजाना खोल देना चाहिए, ताकि आम लोगों को राहत मिल सके।
  • सरकार में भ्रष्ट लोग शामिल हैं, इसलिए पैसों के लेन-देने के आधार पर आनन-फानन में उस कंपनी के टीकों को भी मंजूरी दी जा रही है, जो घूस खिला सके। सरकार पर देशी फार्मास्यूटिकल कंपनियों के साथ-साथ इंग्लैंड और अमेरिका सरकार और विदेशी बिग फर्मा का भी दवाब है।
  • इन टीकों पर तभी विश्वास किया जा सकता है, जब भारत के प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और आला-अधिकारी इसे पहले लगवाएं।
    उपरोक्त सभी उत्तर गलत नहीं है। कोविड के नाम पर वैश्विक स्तर पर बहुत बड़े पैमाने का आर्थिक भ्रष्टाचार जारी है, और इस लूट का एक अच्छा-खासा प्रतिशत राजनेताओं, राजनीतिक दलों और खास विशेषज्ञों व नौकरशाहों तक पहुंच रहा है।

    लेकिन, यह खेल यहीं तक सीमित नहीं है।

    अगर हम कोविड के टीके के संबंध में चल रहे वाद-विवाद से इतर विचार करें तो मूल मुद्दे के अधिक निकट पहुंच सकेंगे। मसलन, इस संबंध में किंचित सही सवाल निम्नांकित हो सकते हैं :
  • टीकों के निर्माण और वितरण  में किसका निवेश है?
  • भारत समेत दुनिया के अधिकांश देशों में स्वास्थ संबंधी नीतियों को कौन संचालित करता है? और, 
  • क्या हमें वास्तव में वैक्सीन की जरूरत है?

    पहले हम देखें कि क्या भारत सरकार मुफ्त टीका के लिए खजाना खोलने में कंजूसी कर रही है? सरकार ने मई, 2020 में कोविड-राहत पैकेज के तहत 20 लाख करोड़ रूपए जारी करने का ऐलान किया था। लेकिन बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि  इसमें से 13 हजार करोड़ रूपए भारत के सभी पालतू पशुओं को मुफ्त टीका देने के लिए थे। केंद्रीय पशुपालन मंत्री गिरिराज सिंह ने इसकी जानकारी एक बार टीवी पर उत्साह पूर्वक दी, उसके बाद वे चुप्पी साध गए।शायद उन्हें लगा कि जनता का ध्यान इस ओर ज्यादा जाएगा तो सवाल खड़े होंगे। बीमारी जब आदमी को हो रही है तो इसके लिए जारी राहत पैकेज से पशुओं के लिए टीका क्यों ख़रीदा जा रहा है?

    पशुओं को ये टीके गैर-कोविड बीमारियों के लिए दिए गए। भारत के सभी 53 करोड़ पशुओं के लिए टीका ख़रीदा गया। इनमें आम और खास पशु जैसा कोई अंतर नहीं किया गया। जैसा कि मनुष्यों के मामले में किया जा रहा है कि पहले फ्रंटलाइन वर्कर्स को दिया जाएगा, फिर बड़े-बुजुर्ग बीमार लोगों को, तब आम लोगों को मिलेगा। 

    जो सरकार हमारे पशुओं के लिए इतनी उदार है,अनुमान किया सकता है कि मनुष्यों के साथ उसका सलूक क्या होगा!

    इसी सप्ताह भारत सरकार ने कोविड की दो वैक्सीनों के इस्तेमाल के लिए ‘त्वरित स्वीकृति’ दी है। इनमें से एक ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका का भारतीय संस्करण है, जिसे सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया नामक कंपनी ने “कोविशील्ड” के नाम से बनाया है। दूसरी वैक्सीन का नाम “कोवैक्सीन” है। इसे स्वदेशी वैक्सीन भी कहा जा रहा है। इसे भारत बायोटेक नामक कंपनी ने बनाया है।

    भारत सरकार ने इन दोनों वैक्सीनों की स्वीकृति अपने नए औषधि और नैदानिक परीक्षण नियम (गजट में 19 मार्च, 2019 को अधिसूचित) के तहत दी है। नए नियम में “विशेष परिस्थितियों में” वैक्सीनों/दवाओं को इस्तेमाल के लिए “त्वरित मंजूरी” दे दिए जाने का प्रावधान किया गया है।

    दोनों वैक्सीनों को इसी “त्वरित स्वीकृति” के प्रावधान के तहत मंजूरी मिली है, जिसे मीडिया व खुद सरकार में शामिल लोग पता नहीं किस भ्रमवश “आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति” कह रहे हैं। इसी प्रकार, मीडिया में  भारत बायोटेक की कोवैक्सिन को किसी अज्ञात कारण से “बैक-अप” वैक्सीन कहा जा रहा है। वास्तव में ये दोनों बातें निरर्थक हैं। न यह तात्कालिक अनुमति है, न ही कोई एक वैक्सीन मुख्य है और दूसरी कथित “बैक-अप”।  सरकार ने इन दोनों वैक्सीनों के इस्तेमाल की मंजूरी दी है और दोनों में से किसी का भी इस्तेमाल किया जा सकेगा। यह दीगर बात है कि सरकार इनमें से किस वैक्सीन की खरीद करेगी; सभी लोगों को मुफ्त वैक्सीन मिलेगी या सिर्फ कुछ लोगों को – इन सवालों पर सरकार ने अभी तक अपने पत्ते अभी पूरी तरह नहीं खोले हैं। अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि जो लोग वैक्सीन नहीं लेना चाहेंगे, उनसे कैसे निपटा जाएगा।  यहां यह सवाल निरर्थक है कि इस संबंध में सरकार ने अपने पत्ते अभी तक क्यों नहीं खोले हैं। इस सवाल का उत्तर हमें आर्थिक भ्रष्टाचार की उस गंगोत्री की ओर ले जाएगा, जहां बंद कमरों के भीतर कमीशन का मोल-भाव होता है। उस सर्वविदित तथ्य की ओर जाना इस लेख का उद्देश्य नहीं है।

    दरअसल, भारत समेत दुनिया के अधिकांश देशों में टीकाकरण के क्षेत्र में  पिछले कुछ सालों में बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन का निवेश और एकाधिकार बढ़ता गया है।

    वर्ष 2000 में मनुष्यों के लिए वैश्विक स्तर पर टीकाकरण ‘ग्लोबल एलांयस फॉर वैकसीन्स एंड इम्युनाइजेशन’ (गावी) का गठन किया गया था। गावी की नियमावली बताती है कि गावी (वैकसीन की खोज और उत्पादन के लिए) दान देने वाले देशों, निजी कंपनियों व लोगों, विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ, वैक्सीन की खोज व निर्माण में लगी (विशाल) कंपनियों, बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन व अन्य परोपकारी संस्थाओं विकासशील और गरीब देशों (जो वैक्सीन का सबसे बड़ा बाजार हैं) को एक साथ लाने के लिए एक अनूठे बिजनेस-पार्टनरशिप मॉडल के तहत काम करेगी।

    दुनिया भर में मनुष्यों के टीकाकरण से संबंधित लगभग सभी नीतियाँ गावी की नीतियों द्वारा प्रभावित होती जाती हैं। अनेक मामलों में वही इसके लिए नीतियाँ बनाता है, निवेश जुटाता है और इससे होने वाले मुनाफे के एक बड़े हिस्से का हिस्सेदार रहता है। गावी की संस्थापक संस्था बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन है, जिसने 1999 में 750 मिलियन यूएस डॉलर की ‘सीड मनी’ का निवेश कर इसकी स्थापना की थी और आज भी वह इसका सबसे बड़ा निवेशक है। वास्तव में, गावी अपने जन्म से ही बिल गेट्स की जेबी संस्था रही है। आरंभ में वे इस संस्था द्वारा सृजित तकनीकी और बौद्धिक शक्ति का उपयोग कर विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यूएचओ) की नीतियों को प्रभावित करते थे। हालांकि हाल में ही वे डब्ल्यूएचओ के भी सबसे बड़े दान कर्ता बन गए हैं और अब वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्था को संचालित करने वाली इन दोनों संस्थाओं पर उनका कब्ज़ा है।

    सिर्फ मनुष्यों के टीकाकरण के ही मामले नहीं, बल्कि दुनिया भर में पशुओं के टीकाकरण की नीतियाँ बनाने में भी गेट्स फ़ाउंडेशन की पर्दे की पीछे से मुख्य भूमिका में रहता है। गावी की ही भांति पशुओं के टीकाकरण की नीतियाँ बनाने की वैश्विक ज़िम्मेदारी “ग्लोबल एलायंस फॉर लाइव स्टॉक वेटनरी मेडिसीन्स  (गाल्वमेड – GALVmed) ने उठाई हुई है। इस संस्था का गठन 2005 में ब्रिटेन के अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग द्वारा की गई सीड फंडिंग के ज़रिए हुआ था, लेकिन 2008 से गेट्स फ़ाउंडेशन की ओर से बड़े पैमाने पर फंडिंग शुरू हुई,जिसके बाद इस पर भी फ़ाउंडेशन का  शिकंजा मजबूत होता गया। भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया में पशुओं के टीका करण संबंधी नीतियों को प्रभावित करने के लिए गाल्वमेड की लॉबी काफी सक्रिय है। चूंकि भारत सरकार ने अभी तक इस बारे में कोई सूचना नहीं दी है कि पशु-टीकाकारण के लिए जारी 13 हजार करोड़ रूपए में किन-किन कंपनियों की वैक्सीन की खरीद हुई है, इसलिए अभी इसके पीछे के खेल का खुलासा नहीं हुआ है।

    बहरहाल, हम कोविड की वैक्सीन की ओर लौटें। गावी का समर्थन भारत में भारतीय कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट, पुणे द्वारा निर्मित कोविड की वैक्सीन ‘कोविशील्ड’ को प्राप्त है। गावी ने  ‘कोविशील्ड’ के लिए  300 मिलियन डॉलर का निवेश सीरम इंस्टीट्यूट में किया है। सीरम इंस्टीट्यूट को यह राशि गावी द्वारा दी गई है, लेकिन यह एक सर्वविदित तथ्य है यह पैसा बिल गेट्स की ओर से आया है। यही कारण है कि अखबार भी इसे सीधे तौर पर गेट्स फ़ाउंडेशन द्वारा दी गई राशि बताने में संकोच नहीं करते रहे हैं। अगस्त, 2020 में जब गावी ने सीरम इंस्टीट्यूट के साथ करार किया तो भारत के प्रमुख अंग्रेजी अखबारों में से एक हिंदुस्तान टाइम्स ने जो खबर प्रकाशित की थी, उसका शीर्षक दिया था – “कोविड -19 वैक्सीन निर्माण प्रक्रिया को गति देने के लिए सीरम इंस्टीट्यूट का बिल गेट्स फ़ाउंडेशन, गावी के साथ करार”। गोया, गावी और गेट्स फ़ाउंडेशन एक ही संस्था हो।  हिंदी अखबार इस मामले में और आगे रहे। हिंदी दैनिक भास्कर ने इस खबर को जारी करते हुए कि बताया कि उसे इस संबंध में सीरम इंस्टीट्यूट से सूचना मिली है। अखबार का इशारा संभवत: सीरम इंस्टीट्यूट से प्राप्त प्रेस नोट की ओर रहा होगा। भास्कर ने अपनी खबर में सीरम इंस्टीट्यूट के हवाले से कहा कि “गावी गेट्स फ़ाउंडेशन की ही एक संस्था है।” तथा “इसका मकसद निम्न आय वाले देश के लोगों को वैक्सीन उपलब्ध कराना है।” जाहिर है, अखबार ने तकनीकी रूप से भले ही गलत कहा हो, लेकिन यह व्यापक तौर पर सच है कि गावी और गेट्स फ़ाउंडेशन निहित स्वार्थों वाले कुछ पूँजीपतियों के एक ही मुखौटे के अलग-अलग नाम रहे हैं। डब्ल्यूएचओ नाम भी इस सूची में शामिल किया जा सकता है।

    न सिर्फ गेट्स फ़ाउंडेशन से पैसा पाने वाली सीरम इंस्टीट्यूट जैसी संस्थाएं बल्कि इस क्षेत्र के सभी विशेषज्ञ जानते  हैं कि गावी, डब्लूचओ बिल गेट्स की जेबी संस्था है, लेकिन कोई भी इसे खुले मंच से कहना नहीं चाहता।

    सीरम इंस्टीट्यूट से बिल गेट्स का मधुर रिश्ता लगभग एक दशक पुराना है। वर्ष 2012 में जब बिल गेट्स भारत यात्रा पर आए तो उन्होंने विशेष तौर पर पूणे जाकर  इंस्टीट्यूट के संस्थापक, भारत के वैकसीन किंग कहे जाने वाले डॉ. साइरस पूनावाला से मुलाकात की थी। उस समय बिल गेट्स ने एक विशेष वीडियो संदेश में कहा था कि सीरम के “उत्पाद बहुत उच्च गुणवत्ता के हैं और दुनिया भर में सस्ते टीकों की एक बड़ी जरूरत को पूरा करने में सक्षम हैं”। आज साइरस पूनावाला के पुत्र अदार पूनावाला सीरम इंस्टीट्यूट के मालिक हैं।

    दूसरी ओर, हैदराबाद में स्थित भारत बायोटेक कंपनी ने ‘कोवैक्सीन’ नाम से कोविड की वैक्सीन बनाई है।

    सीरम इंस्टीट्यूट ‘कोविशील्ड’ को प्रयोग की अनुमति मिलने पर भारतीय मीडिया में कोई सवाल नहीं हैं, जबकि भारत बायोटेक की ‘कोवैक्सीन’ सवालों के कटघरे में घेरे में है। मीडिया में कहा गया है कि सीरम इंस्टीट्यूट वाली वैक्सीन क्लिनिकल ट्रायल से संबंधित डेटा उपलब्ध है, जबकि भारत बायोटेक ने अपना डेटा पब्लिक डोमेन में जारी नहीं किया है। जबकि, वस्तु स्थिति यह है कि दोनों ही ट्रायल के उन मानकों को पूरा नहीं करते, जिनकी अपेक्षा स्वास्थ्य-विशेषज्ञ करते हैं।

    लेकिन गेट्स फ़ाउंडेशन का दबदबा सिर्फ वैश्विक-स्वास्थ्य व्यवस्था पर ही नहीं है, बल्कि इसका बहुत बड़ा निवेश मीडिया, एकेडमिया और उन सलाहकार समूहों में भी है, जो किसी मुद्दे पर व्यापक सहमति के निर्माण में भूमिका निभाते हैं। यह संस्था न सिर्फ अपने पक्ष में जाने वाले तात्कालिक और दूरगामी तर्कों के निर्माण में गहरी दिलचस्पी रखती है, बल्कि अपने विरोधियों और प्रतिद्वंद्वियों पर चौतरफा हमला भी करवाती है।

    यह हमला किस प्रकार प्रतिद्वंद्वियों को हतप्रभ कर देता है, इसकी एक बानगी 5 जनवरी, 2020 को भारत बायोटेक के चेयरमैन कृष्ण इल्ला की प्रेस कांफ्रेंस में उस समय दिखी, जब वे पत्रकारों को हाथ जोड़कर अपने देश प्रेम की दुहाई देने लगे।

    बायोटेक के चेयरमैन ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि उनकी  ‘कोवैक्सीन’ को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि यह विशुद्ध भारतीय वैक्सीन है, जिसके निर्माण के लिए उन्हें दूसरों की तरह “किसी फ़ाउंडेशन (बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन) से कोई पैसा नहीं मिला है”। उन्होंने गेट्स फ़ाउंडेशन की ओर इशारा करते हुए कहा कि मीडिया में प्रसारित करवाया जा रहा है कि उनकी वैक्सीन को महज दूसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल के आंकड़ों के आधार पर स्वीकृति दे दी गई है। जबकि, इस बात के अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब अतीत में भारतीय दवा नियामक ने दूसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल के आधार पर ही वैक्सीनों को प्रयोग की अनुमति दी थी। उन्होंने इस संबंध में एच वन-एन वन के टीकों की स्वीकृति की याद दिलाई। उस समय भी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, भारत बायोटेक और ज़ाइडस कैडिला को चरण -2 के आंकड़ों के आधार पर ही टीकों के प्रयोग की अनुमति मिल गई थी।

    उन्होंने कहा कि उनकी कंपनी द्वारा किए गए तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल के आंकड़े भी उपलब्ध हैं और उनकी वैक्सीन की प्रभावकारिता के बारे में पांच प्रकाशन पीयर रिव्यूड मेडिकल जर्नल में हो चुके हैं, जो कि ‘कोविशील्ड’ से ज्यादा हैं।

    इससे दो दिन पहले पहले सीरम इंस्टीट्यूट के मालिक अदार पुनावाला ने मीडिया में दिए अपने एक साक्षात्कार में भारत बायोटेक की  ‘कोवैक्सीन’ का मजाक बनाते हुए कहा कि इस प्रकार की देशी वैक्सीन पानी की तरह सुरक्षित है। न उसका कोई लाभ है, न ही नुकसान। उन्होंने कहा कि उनकी वैक्सीन कोविड के खिलाफ 70 फीसदी मामलों में प्रभावी पाई गई है, और अगर इसके दो डोज तीन महीने के अंतराल पर दिए जाएंगे तो यह  90 फीसदी मामलों में कारगर रहेगी।

    उपरोक्त दोनों कंपनियों के मालिकों के वक्तव्य खुद ही यह जाहिर करने के लिए काफी हैं किस प्रकार भारत की सवा अरब से ज्यादा की मानव-आबादी को मज़ाक का पात्र बना दिया गया है। पहले तो हमें यह कहते हुए लॉकडाउन में धकेला गया कि कुछ ही दिनों में सब ठीक हो जाएगा और अब वैक्सीन से कमाई के लिए धन-पशुओं में होड़ मची है।

    इन कंपनियों को इसके लिए न राजनीतिक विभाजनों का फायदा उठाने से गुरेज है, न ही सामाजिक विभाजनों का। इससे तो हम परिचित ही हैं कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भारत बायोटेक की ‘कोवैक्सीन’ को सत्ताधारी ‘भाजपा की वैक्सीन’ करार दिया है। लेकिन इसका एक और पहलू बायोटेक के चेयरमैन कृष्ण इल्ला की उपरोक्त प्रेस कांफ्रेंस में उस समय दिखा, जब उन्होंने अपनी अद्विज सामाजिक पृष्ठभूमि की ओर  संकेत करते हुए कहा कि मैं एक किसान परिवार से आने वाला वैज्ञानिक हूं। इल्ला जो कह रहे थे, उसका आशय यह था कि उनकी वैक्सीन के देशी होने तथा उनके समुदाय के अद्विज होने के कारण, उन्हें निशाने पर लिया जाना आसान हो गया है ( दूसरी ओर, पूनावाला परिवार पारसी है, जो भारत में अल्पसंख्यक लेकिन साधन-शक्ति संपन्न समुदाय है और गैर हिंदू होने के कारण द्विजों के बीच स्वीकार्य है। उन्हें सामाजिक श्रेणी के रूप में वह भेदभाव नहीं झेलना पड़ता जो निम्न हिंदू जातियों को झेलना पड़ता है )। इल्ला की बात पूरी तरह बेबुनियाद भले ही न हो, लेकिन यह वह दिशा भी है, जिसकी ओर जाने पर हम कोल्हू के बैल की भांति उसी वर्तुलाकार एजेंडे के भीतर चक्कर लगाते रहने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो हमें सुनियोजित तौर सौंपा जा रहा है।

    इस वर्तुल से बाहर निकलने के लिए यह मूल सवाल उठाया जाना चाहिए कि क्या हमें वास्तव में कोविड के वैक्सीन की जरूरत है? यह एक ऐसी कथित महामारी है, जिसकी मृत्यु दर आंकड़ों के अनंत अतिशयोक्तिपूर्ण प्रदर्शन के बावजूद नगण्य है। फरवरी-मार्च, 2020 में डब्ल्यूएचओ ने कहा था कि इसकी मृत्यु दर 3 प्रतिशत से ज्यादा है, जो बढ़कर 6 प्रतिशत या और भी ज्यादा हो सकती है। इन अतिश्योक्तिपूर्ण आंकड़ों और पूर्वानुमानों के बाद दुनिया भर में लॉकडाउन की शुरूआत हो गई थी।  लेकिन अगस्त, 2020 में  डब्ल्यूएचओ  स्वीकार  किया कि इसकी मृत्यु दर महज 0.6 प्रतिशत है। इसके बावजूद भय की महामारी फैलती रही और अन्य जानलेवा बीमारियों से पीड़ित लोगों को उचित इलाज मिलना दुर्भर बना रहा, जिससे लोगों की मौत होती रही। उचित इलाज के अभाव में मरने वाले ज्यादातर तो अन्य बीमारियों से ही पीड़ित थे, लेकिन जिन्हें जांच के दौरान कोविड का संक्रमण पाया, उन सब को कोविड से मृत घोषित कर दिया गया। चाहे उनमें कोविड का कोई लक्षण मौजूद हो या न हो।

    अधिकांश राज्यों में स्वास्थ्य सेवाएं 10 महीने बीत जाने के बावजूद सामान्य स्थिति में नहीं आ पाईं हैं और विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त लोगों की बेमौत मौत का सिलसिला जारी है, जिनमें से अनेक को कोविड के खाते में दर्ज किया जा रहा है।

    लेकिन आंकड़ों की तमाम हेराफेरी के बावजूद संक्रमण घट रहा है और मौतों की संख्या काफी कम हो गई है। वह भी तब जबकि साफ देखा जा सकता है कि देश भर में भीड़-भाड़ वाली जगहों पर मास्क और कथित सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा है।

    ऐसे में यह सवाल तो बनता ही है कि क्या हमें वास्तव में वैक्सीन की जरूरत है?  ऐसा नहीं है कि यह सवाल उठाया नहीं जा रहा है। दुनिया भर में अनेक विशेषज्ञ इस सवाल को उठा रहे हैं, लेकिन उन्हें हम तक पहुंचने से रोकने के लिए दुनिया के संचार माध्यमों पर काबिज  कंपनियां जी-जान लगा दे रही हैं। इसके बावजूद जो सूचनाएं लोगों तक तक पहुंच जा रहीं हैं, उन्हें कंस्पेरेसी थ्योरी कह कर अविश्वसनीय बना डालने की कोशिश की जा रही है।

    हाल ही में भारत सरकार महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य-कार्यक्रम ‘आयुष्मान भारत’ के सीईओ डॉ. इंदू भूषण ने भी एक वेबीनार में यह सवाल उठाते हुए कहा कि भारत में हर्ड इम्यूनिटी विकसित हो रही है। संक्रमण की दर (आर फैक्टर) सभी राज्यों में एक प्रतिशत से कम हो गई है, (जो कि किसी भी महामारी का प्रसार रूक जाने का संकेत माना जाता है), ऐसे में क्या भारत सरकार को वैक्सीन की खरीद पर खर्च करना चाहिए? इंदू भूषण स्वयं भी दुनिया के जाने-माने स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं तथा  कोविड की रोकथाम संबंधी कार्रवाइयों में ‘आयुष्मान भारत’ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन कहा जा सकता है कि इंदू भूषण अपनी कंजूस सरकार की तरफदारी कर रहे हैं या उन्हें देश की गरीब जनता की कोई फिक्र नहीं है।

    लेकिन इसके बावजूद यह सवाल तो है ही कि एक ऐसी महामारी जिसकी मृत्यु दर 0.6 प्रतिशत है और जिसकी वैक्सीन की सफलता की दर 70 से 90 प्रतिशत है, क्या उसे वास्तव में वैक्सीन कहा जाना चाहिए? जो कथित वैक्सीन हमारे सामने परोसी जा रही है, उसकी असफलता की दर घोषित रूप से 10 से 30 प्रतिशत है!  विभिन्न शोधों में कोविड का आर फैक्टर 2 से 6 के बीच माना गया है।  डब्ल्यूएचओ समेत सभी संस्थाएं यही कहती रहीं हैं कि नॉवेल कोरोना वायरस  का एक कैरियर दो से छह व्यक्तिय तक इसे फैला सकता है, जिनमें से 80 फीसदी को इसके कोई लक्षण नहीं होंगे। शेष 15 प्रतिशत को बहुत मामूली लक्षण होंगे और महज 5 फीसदी को हॉस्पिटल में भर्ती करवाने की जरूरत पड़ सकती है। लेकिन यह वैक्सीन अगर दुनिया के सभी लोगों को लगा दी जाती है, जैसा कि बिल गेट्स का सपना है, तो कोविड असुरक्षित लोगों की संख्या 10 से 30 प्रतिशत के बीच होगी!

    इतना ही नहीं, इन वैकसीनों के साइड इफेक्ट के बारे में भी सवाल उठते रहे हैं। अनेक लोग क्लिनिकल ट्रायल के दौरान भयावह दुष्परिणाम झेल चुके हैं तथा लगभग एक दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है।

    खुद बिल गेट्स ने भी अप्रैल, 2020 में एक इंटरव्यू में इन सवालों का जबाब देते हुए स्वीकार किया था कि कोविड के टीकाकरण के दौरान दुनिया भर में 7 लाख लोगों को बुरे प्रभावों से गुजरना पड़ सकता है। उस साक्षात्कार में उन्होंने  ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका की निर्माणाधीन वैक्सीन (जिसका भारतीय संस्करण कोविशील्ड है) का जिक्र करते हुए करते हुए प्रशंसात्मक लहजे में कहा था कि 10 हजार लोगों में से “महज” एक व्यक्ति को वैकसीन के साइड इपेक्ट होंगे। यानी, दुनिया की सात अरब आबादी में से “बमुश्किल”  7 लाख लोग इसकी चपेट में आएंगे। ग़ौरतलब है कि ये साइड इफैक्ट सिर में दर्द से लेकर, स्थाई अनुवांशिक परिवर्तन और  व्यक्ति की मौत तक के हो सकते हैं। गेट्स ने उस साक्षात्कार में यह भी स्वीकार किया था कि वैक्सीनें अधिक उम्र के लोगों पर कारगर नहीं होतीं। हालांकि उन्होंने उम्मीद जताई कि ऐसी वैक्सीन बन सकेगी,जो बुर्जुर्गों पर भी प्रभावी हो। लेकिन कोविशिल्ड, कोवैक्सीन समेत दुनिया भर में जितनी भी वैक्सीनें बनी हैं और बन रही हैं, उनमें से किसी ने यह दावा नहीं किया है कि उनकी वैक्सीन बुर्जुग लोगों के मामले में प्रभावी रहेगी। क्लिनिकल ट्रायलों के ज्यादातर आंकड़े किशोर, युवा और अधेड़ के लोगों के है। ऐसे में यह सवाल भी बनता है कि क्या 10 से 30 प्रतिशत की असफलता-दर बुर्जुर्गों पर इसके बे-असर रहने के कारण ही है?

    सवाल यह भी है कि क्या वास्तव में कोई वैक्सीन बनी है? या यह बस पानी है, जैसा कि अदार पूनावाला ने कृष्ण इल्ला की वैक्सीन के बारे कहा है? उनका कुछ ज्यादा पानी, इनका कुछ कम पानी! अगर बनी है, लेकिन वह बुजुर्गों पर असर नहीं करती तो इसका होना या न होना बेमानी  है क्योंकि कोविड के लगभग शत-प्रतिशत शिकार हमारे बुर्जुग ही हैं।

    अनेक विशेषज्ञ आरंभ से ही कहते रहे हैं कि अनेक कारणों से फ्लू की ही तरह कोविड की भी कोई वैक्सीन कारगर नहीं हो सकती। इनमें से एक मुख्य कारण वायरस का म्युटेट करना है। हर्ड इम्युनिटी ही इसका कारगर हल है।

    बहरहाल, कोविड के संदर्भ सामने आने वाले तथ्यों से गुजरते हुए हम देखते हैं कि इसके पीछे का बड़ा खेल सिर्फ पैसों का नहीं है। कम से कम सिर्फ कागज अथवा डेबिट-क्रेडिट कार्ड में निहित नोटों और डॉलरों का तो नहीं ही है। कोविड का खेल अर्थ की बजाय अर्थ-व्यवस्था पर कब्ज़े का है। इस खेल की बिसात पर मौजूदा राजनेता, राजनीतिक दल, पूनावाला, इल्ला आदि महज मोहरे के रूप में मौजूद हैं। असली खेल दुनिया की राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने का है। इस बिसात के पीछे वे गिने-चुने पूंजीपति बैठे हैं, जिनके पास दुनिया के अधिकांश देशों से अधिक धन है। पिछले कुछ वर्षों में दुनिया की अधिकांश संचार-व्यवस्था का आमूलचूल इनके कब्ज़े में आता गया  है। इनमें प्रमुख हैं माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन, गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों के मालिक और उनके मित्रगण।

    ये जनता के सामने अब एक पूंजीपति के रूप में नहीं आते, बल्कि एक दार्शनिक, भविष्यवक्ता, चिकित्सा-विशेषज्ञ या परोपकारी के रूप में प्रकट होते हैं। दुनिया भर की राजसत्ताएं इनसे आशीर्वाद लेती हैं, बुद्धिजीवियों का एक बड़ा हिस्सा इनसे अपनी सरकारों की मनमानी के खिलाफ लड़ाई में सहयोग के लिए अनुनय करता है। जनता इन्हें अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का रक्षक समझती है।

    इन पूँजीपतियों के पास भी अपना एक दर्शन है। दुनिया के भविष्य के बारे में एक रूप-रेखा है। वे भी अपने तरीके से दुनिया को स्वर्ग बनाना चाहते हैं। वे  तकनीक के इस दौर में अनुपयोगी होती जा रही अकुशल मानव-आबादी से दुनिया को निजात दिलाना चाहते हैं और  एक ‘नया मनुष्य’ और ‘नई दुनिया’ बनाना चाहते हैं। जाहिर है, उनके सपनों की नई दुनिया और हमारे सपनों की नई दुनिया दर्शन के विपरीत ध्रुवों पर स्थित है।

    [पत्रकार व शोधकर्ता प्रमोद रंजन की दिलचस्पी  संचार माध्यमों की  कार्यशैली के अध्ययन, ज्ञान के दर्शन और साहित्य व संस्कृति के सबाल्टर्न पक्ष के विश्लेषण में रही है। यह आलेख सर्वप्रथम दिल्ली से प्रकाशित वेब पोर्टल ‘जन ज्वार’ में उनके साप्ताहिक कॉलम ‘नई दुनिया’ में प्रकाशित हुआ है]

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