मनोज दास : श्रद्धापूर्ण प्रणाम
1 min readवर्ष 2020 जून का महीना। आकाश से आग बरस रही थी। पांडिचेरी न पहुंचने तक असामयिक बारिश वातावरण में थोड़ी-सी ठंडक पैदा कर रही थी। मेरे भीतर विद्यमान अपरिमित उत्साह और आशा की लहर जून महीने के ग्रीष्म-प्रकोप को थोड़ा शीतल कर मन में हर्ष पैदा रही थी। इस प्रसन्नता की मुख्य वजह थी, युगजन्मे सारस्वत साधक श्री मनोज दास जी को उनके पांडिचेरी-आवास में मिलने के कार्यक्रम की योजना। सुबह जब मैंने उनके घर पहुंचते ही दरवाजा खोला तो सामने खड़े थे माननीय मनोज दास जी। विश्वास नहीं हो पा रहा था कि सच में मेरे सम्मुख साक्षात में वे खड़े हैं। उनके चरण-स्पर्श करते समय उनके दोनों हाथ मेरे सर पर थे। वह मेरे लिए किसी दिव्य-आशीर्वाद से कम नहीं था। मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने घर के भीतर ले गए। मैं नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु में अध्यापन कार्य कर रहा था और बेंगलुरु से उन्हें एक विशेष विषय पर भाषण देने के लिए आमंत्रित करने आया था। उनके घर पर उनसे बहुत सारे गूढ विषयों पर चर्चा करने का एक महान सुअवसर प्राप्त हुआ था। उन्होंने मेरे अध्यापकीय जीवन, शोध के विषय पर, मेरे पिताजी नारायण प्रुसेठ और नरसिंहनाथ के बारे में बहुत-सी इधर-उधर की बातें पूछी। उनके प्रत्येक शब्द, प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक बोल में उनकी गरिमा व स्नेहिल जादू का स्पर्श झलकता था। ‘लक्ष्मी का अभिसार’, ‘आरण्यक’, ‘धूम्राभ दिगंत’ जैसी कालजयी रचनाओं के स्रष्टा माननीय मनोज दास जी की बातें मेरे हृदय को छू रही थी। बातचीत के दौरान उन्होंने अपनी धर्मपत्नी प्रतिज्ञादेवी को आवाज लगाकर कहा, “कुछ चाय नाश्ता का प्रबंध करो।घर में सुजीत बाबू आए हैं। मेरे मित्र नारायण प्रुसेठ का बेटा सुजीत अब बेंगलुरु की जानी-मानी यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक है। उनके साथ एक फोटो भी ले लो।”
उनके द्वारा खींची गई तस्वीर मेरे लिए आज भी अमूल्य धरोहर है
सन 1985 के नवंबर महीने में यशस्वी लेखक मनोज दास जी के दर्शन करने का पहला मौका मुझे मिला था। उस समय महत्वपूर्ण अंग्रेजी पत्रिका ‘हेरिटेज’ के संपादक थे और श्री नरसिंह नाथ पर अपना आलेख लिखने के लिए पदमपुर हमारे घर पहुंचे थे। पिताजी के साथ उनकी बहुत पुरानी मित्रता थी। पिताजी के साथ वे श्री नरसिंह नाथ गए, जिस पर लिखा गया उनका लेख ‘हेरिटेज’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ।
2010 जून महीने में उनके साथ मुलाकात थोड़ी दीर्घ थी। मनोज दास जी ने मुझे दोपहर का खाना खाकर जाने के लिए कहा था।बातचीत के दौरान मैंने साहस जुटाकर पूछा था,“क्या हेरिटेज जैसी कुछ और पत्रिकाएँ शुरू की जा सकती है ? ‘हेरिटेज’ हमारे देश के साहित्य और संस्कृति की परिचायक है।” वे थोड़ी देर के लिए नीरव हो गए। कुछ देर बाद उनके चेहरे पर चमक उभरी। खाना खाते समय कहने लगे, “सुजीत! तुम तो अब विख्यात यूनिवर्सिटी में अध्यापक हो और मैं भी अध्यापक हूँ। अध्यापक के भीतर एक स्वाभिमान छुपा हुआ होता है। संपादक होने से मेरा स्वाभिमान मुझे अरुचिकर विज्ञापन छापने की अनुमति नहीं देता है।”
फिर कुछ समय रुक कर कहने लगे, “ऋषिकेश के स्वामी राम, ‘लिविंग विद हिमालयन मास्टर्स’ के लेखक हेरिटेज पत्रिका को अमेरिका से प्रकाशित करना चाहते थे, मगर हेरिटेज के मूल प्रकाशक ने इस हेतु सहमति नहीं दी।”
मेरे सबसे प्रिय लेखक माननीय मनोज दास जी के साथ मेरी पहली मुलाकात हुई थी, सन 1991 में। उस समय मैं जीएम कॉलेज, संबलपुर में अर्थशास्त्र का छात्र हुआ करता था। सन 1991 में पांडिचेरी में उनका भाषण सुनकर मैं उनको अपना आदर्श मानने लगा था। उस समय भी उन्होंने मेरे सर पर अपना वरद-हस्त रखा था। बाद में मेरे पिता को लिखी चिट्ठी में उन्होंने मुझे भी याद किया था। आज भी उनकी हस्तलिखित चिट्ठी मेरे लिए आशीर्वाद और उपहार -स्वरुप है।
उनमें आध्यात्मिक चेतना और प्रखर वकृत्व का बहुत अद्भुत समन्वय है। स्वाधीनता के बाद भारत वर्ष के ज्ञान-भंडार के संवाहक थे वे। ‘अंतरंग भारत’ और ‘केते दिगंत’ उनकी सार्वभौमिक विचारधारा और व्यापक चेतना को उजागर करती है। माननीय मनोज दास जी ओड़िया और अंग्रेजी भाषा की मूर्धन्य लेखक है। प्रख्यात अँग्रेजी लेखक गंटर ग्रास के शब्दों में वे विश्व साहित्य में मैजिकल रियलिज्म की नई धारणा का प्रवर्तक थे। लेखक रस्किन बॉन्ड के अनुसार मनोज दास एक ऐसे कथा-शिल्पी है, जो अपने शब्दों की जादूगरी से पाठकों का मन हर लेते हैं। उन्नत विचारधारा और चेतना के कथाकार, आदर्श अध्यापक और महान वक्ता श्रदेय मनोज जी की दिवंगत आत्मा को मेरा भक्तिपूर्ण सश्रद्धा प्रणाम।
डॉ सुजीत कुमार पृशेठ
नई दिल्ली, मोबाइल 9868766705