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December 24, 2024

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बजट : 2021 पर एक टिप्पणी- कोविड-अकाल की आहट को अनुसना कर रही भारत सरकार

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Budget: A note on 2021 - Government of India observing the call of Kovid-famine

प्रमोद रंजन

भारत सरकार का बजट 2021 कोविड महामारी के साये में आया है। पिछले एक साल से दुनिया के अन्य देशों की तरह ही भारत का जन-जीवन लगभग थमा हुआ है। ग़रीब और मध्यम आय-वर्ग के लोगों में हाहाकार मचा हुआ है। करोड़ों लोग पूरी तरह बेरोज़गार हो गये हैं तथा लाखों-लाख लोगों को आय में भारी कमी का सामना करना पड़ा है।

लॉकडाउन के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी भूख से संबंधित आँकड़ों के आधार पर ऑक्सफैम ने अनुमान लगाया था कि लॉकडाउन के कारण 2020 का अंत आते-आते दुनिया में हर दिन 6 से 12 हजार अतिरिक्त लोगों की मौत होने लगेगी। मौत का यह तांडव शुरू हो चुका है और दिनों-दिनो चुपचाप यह अपना दायरा बढ़ाता जा रहा है। ये लोग पिछले एक साल में बढ़ी ग़रीबी के कारण मर रहे हैं। जो कोविड से होने वाली मौतों के आधिकारिक आँकड़ों से भी बहुत ज़्यादा है। दुनिया पर भयावह अकाल का काला साया मँडरा रहा है। इसे ‘कोविड 19 अकाल’ कहा जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की खाद्य राहत एजेंसी (WEP) इस बारे में लगातार चेतावनी जारी कर रही है। कहा जा रहा है कि यह पिछली एक सदी के सबसे भयावह अकालों में से एक होगा, जो दुनिया के ग़रीब और विकासशील देशों तथा युद्धग्रस्त इलाक़ों पर क़हर की तरह बरपेगा। इस अकाल में भूख के एक नये एपी सेंटर के रूप में भारत के उभरने की आशंका है।

भारत में क्या हालत हो चुकी है, इसका अनुमान दिसंबर, 2020 में हुए एक सर्वेक्षण से लगता है। इस सर्वेक्षण के अनुसार भारत की आधी से अधिक आबादी को कोरोना-काल में पहले की तुलना में कम भोजन मिल रहा है। इनमें ज़्यादातर दलित और आदिवासी हैं।2

लेकिन इन सूचनाओं से भी अधिक भयावह यह है कि भारत का बौद्धिक वर्ग, ग़रीबों के सर पर मँडराते मौत के इस साये से प्राय: निरपेक्ष है। भारतीय मीडिया, सोशल मीडिया व शहरी पब्लिक स्फीयर्स में ग़रीबों की सड़ती हुई लाशों की बदबू नहीं पहुँच रही है। संभवत: सदियों से मौजूद सामाजिक असमानता की हमारी विरासत ने भूमंडलीकरण के दौर में आर्थिक असमानता और सामाजिक-अलगाव की खाइयों को इतना चौड़ा कर दिया है कि हम एक-दूसरे से पूरी तरह अलग-थलग व बेज़ार बने रह सकते हैं।

इस अलगाव की मौजूदगी भारत सरकार के इस साल के बजट और उस पर मीडिया में होने वाली चर्चाओं में भी दिख रही है। एक फरवरी को पेश किए गये बजट में भारत सरकार का ज़ोर इस पर है कि किस प्रकार देश की अर्थव्यवस्था को कोविड से हुए नुक़सान से उबारा जाए। इसके लिए देश की अनेक परिसंपत्तियों और संस्थाओं को निजी पूँजीपतियों के पास बेचने के प्रावधान किए गये हैं। सरकार के इन प्रावधानों पर ही मीडिया की चर्चाएँ केन्द्रित हैं। कुछ लोग इसे उचित, आवश्यक और पहले से चल रहे ‘आर्थिक सुधारों’ की अगली कड़ी मान रहे हैं, जबकि कुछ लोग इस सरकार को ‘देश बेच देने वाली सरकार’ कह रहे हैं।

वित्त मंत्री ने अपने बजट-भाषण में कोविड-टीका की उपलब्धता तथा इसके लिए बजट में किए गये प्रावधानों का विस्तार से ज़िक्र किया और देश को डिज़िटल बनाने पर ख़ास बल दिया। चर्चा इसके भी पक्ष-विपक्ष में हो रही है। लेकिन इस बीच यह सवाल पूरी तरह ग़ायब है कि बजट में लॉकडाउन से उपजी भुखमरी और आसन्न अकाल का कोई ज़िक्र तक क्यों नहीं है?

इस बजट के आने से कुछ ही दिन पहले ऑक्सफेम ने ‘असमानता का वायरस’ (The Inequality Virus) नाम से एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट में बताया गया है कि कोविड-19 ने दुनिया के सभी देशों में असमानता को बहुत तेज़ी से बढ़ाया है। दुनिया के 1,000 महा धनकुबेरों (सुपर-रिच) की संपत्ति में इस दौरान बेहतहाशा वृद्धि हुई। दुनिया में जब लॉकडाउन की शुरुआत हुई तो उन दिनों शेयर बाज़ार तेज़ी से लुढ़का, जिससे इन धनकुबेरों को थोड़े समय के लिए कुछ आभासी नुक़सान होता दिखा, लेकिन दुनिया में लॉकडाउन की समाप्ति से पहले ही इनकी संपत्ति न सिर्फ़ लॉकडाउन से पूर्व की स्थिति में पहुँच गयी3 बल्कि उन्होंने उस दौरान इतना धन बनाया, जितना पिछले कई सालों में नहीं कमा सके थे। धन का यह केन्द्रीकरण मुख्य रूप से दुनिया को डिज़िटल बनाने की क़वायदों के कारण संभव हो सका। स्वास्थ्य और वैक्सीन व कुछ अन्य क्षेत्रों में व्यापार करने वाले लोगों ने भी उस बीच ख़ूब पैसा बनाया। ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि इस दौरान वैश्विक धनकुबेरों की संपत्ति 19 प्रतिशत बढ़ी। इस अवधि में दुनिया के सबसे अमीर आदमी जेफ बेजोस की संपत्ति में 185.5 बिलियन यूएस डॉलर की वृद्धि हुई। 18 जनवरी, 2021 तक एलोन मस्क की संपत्ति बढ़कर 179.2 बिलियन अमरीकी डॉलर हो गयी थी। गूगल के संस्थापक सर्गेई ब्रिन और लैरी पेज और माइक्रोसॉफ्ट के पूर्व सीईओ स्टीव बाल्मर जैसे अन्य टेक दिग्गजों की संपत्ति में मार्च 2020 के बाद से 15 बिलियन डॉलर की बढ़ोत्तरी हुई। ज़ूम के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी एरिक युआन की संपत्ति इस दौरान बढ़कर 2.58 बिलियन अमरीकी डॉलर हो गयी।

  • भारत में भी इस दौरान आर्थिक-क्षेत्र में कुछ ऐसा घटित हो रहा था, जिसका अनुमान किसी को नहीं था। लॉकडाउन के दौरान भारत के धनकुबेर अरबपतियों अपनी कमाई में अकूत वृद्धि कर रहे थे। कोविड राहत के नाम पर जहाँ सरकारी पैसा उनकी जेब में पहुँच रहा था, वहीं घरों में बंद आम जनता की जेब में बची-खुची रक़म भी निकलकर उन्हीं धनकुबेरों के पास पहुँच रही थी। भारत में इस समय 119 अरबपति हैं, जिनमें मुकेश अम्बानी, गौतम अडानी, शिव नादर, साइरस पूनावाला, उदय कोटक, अज़ीम प्रेमजी, सुनील मित्तल, राधाकृष्ण दामनी, कुमार मंगलम बिरला और लक्ष्मी मित्तल शामिल हैं। मुकेश अंबानी इस दौरान भारत और एशिया में सबसे अमीर व्यक्ति के रूप में उभरे। उन्होंने महामारी के दौरान 90 करोड़ प्रति घंटे कमाए जबकि देश में लगभग 24 प्रतिशत लोग लॉकडाउन के दौरान महज़ 3,000 प्रति माह कमा रहे थे। इन 119 लोगों की समेकित संपत्ति में लॉकडाउन के दौरान 35 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ। कुल मिलाकर इन लोगों ने इस दौरान लगभग 13 लाख करोड़ कमाये। यह रक़म कितनी है, इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि इतने पैसे को अगर ग़रीबों में बाँटा जाए तो भारत के निर्धनतम लगभग 14 करोड़ लोगों में से हर एक को 94 हज़ार रूपये का चेक दिया जा सकता है। सिर्फ मुकेश अंबानी ने लॉकडाउन के दौरान जितना धन कमाया है, उससे अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत उन 40 करोड़ लोगों को कम से कम पांच महीने के लिए गरीबी रेखा के उपर रखा जा सकता है, जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान अपनी नौकरियाँ गंवा दीं।4

दूसरी ओर, इस अवधि में भारत में 12 करोड़ से अधिक लोग भुखमरी के कगार पर पहुँच गये। मध्यवर्ग के लिए बैंकों से लिया गया लोन चुकाना मुश्किल हो गया और लाखों परिवार क़र्ज़दाताओं की धमकियों से तंग आकर सामूहिक आत्महत्या करने तक का विचार कर रहे हैं। सरकार ने मध्य वर्ग द्वारा क़र्ज़ पर कुछ और समय के लिए मॉनेटेरियम दिए जाने की माँग को भी अनसुना कर दिया है। बजट से पूर्व इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मामले में सरकार ने अपनी प्रतिबद्धता क़र्ज़दाताओं के प्रति दिखायी। सरकार ने कोर्ट में यह कहते हुए हाथ खड़े कर दिये कि अगर वह मॉनेटोरियम का फै़सला करती है तो इससे बैंकों में पैसा लगाने वाले पूँजीपतियों का विश्वास सरकार में कमज़ोर होगा। परिणामस्वरूप दर्जनों परिवारों के सामूहिक आत्महत्या की ख़बरें इस बीच आयीं और लाखों परिवार बैंकों व अन्य क़र्ज़दाता संस्थाओं के एजेंटों की गालियाँ सुनने, मार खाने और सरे-बाज़ार अपमानित होने के लिए मजबूर हैं। भारत सरकार का यह बजट इन समस्याओं के बारे में भी पूरी तरह मौन है।

सब चुप सिर्फ़ सरकार ही नहीं, अख़बार भी चुप हैं। यह चुप्पी लगभग तीन दशक पुरानी है। 1990 में बाज़ार केन्द्रित उदार अर्थ-व्यवस्था के आगमन के बाद से ही धीरे-धीरे आर्थिक असमानता संबंधी सवालों को दरकिनार किया जाने लगा था। वर्ष 2000 तक भारत में सिर्फ़ 9 अरबपति थे, 2017 में इनकी संख्या बढ़कर 101 हो गयी थी और जैसा कि पहले ज़िक्र हुआ, आज इनकी संख्या 119 है। एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2017 में देश द्वारा उत्पादित कुल धन का 73 फ़ीसदी देश के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की जेब में पहुँच रहा था। 2018-19 के वित्तीय वर्ष में देश के संपूर्ण वार्षिक बजट में निर्धारित राशि से अधिक धन इन धनकुबेरों के पास था। कोविड नामक वैश्विक आपदा के दौरान ये धनकुबेर पूरी र्निलज्जता से न सिर्फ़ अपना ख़ज़ाना भरते रहे बल्कि इनकी संस्थाओं ने पर्दे के पीछे से कोविड के नाम पर भयादोहन का व्यापार चलाया।

इन अरबपतियों के अतिरिक्त, आर्थिक और सामाजिक शीर्ष पर मौजूद भारत के 10 फ़ीसदी लोगों का क़ब्ज़ा देश की कुल संपदा के 77 फ़ीसदी हिस्से पर है। शेष 90 फ़ीसदी आबादी के पास महज़ 23 फ़ीसदी संपदा है। इस असमानता को कम करने का एक कारगर तरीक़ा वेल्थ टैक्स लगाया जाना और इसका कड़ाई से पालन किया जाना है। यह लॉकडाउन से हुए नुकसान की भरपाई के लिए भी आवश्यक है। यानी, बहुत अमीर लोगों पर सिर्फ उनकी वार्षिक कमाई के आधार पर नहीं, बल्कि उनकी कुल संपत्ति के आधार पर भी अतिरिक्त कर लगाया जाए।लॉकडाउन की मार से अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए न्यूयॉर्क, कैलिफोर्निया, मैसाचुसेट्स, मैरीलैंड, वाशिंगटन समेत अमेरिका के कई राज्यों में अमीरों पर अतिरिक्त कर लगाने की योजना बनाई जा रही है।

वाशिंटगन के राज्य विधान मंडल में हाल ही में एक बिल लाया गया है, जिसका मकसद अमीरों पर वेल्थ टैक्स लगाकर लॉकडाउन से टूट चुकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना है है।6 अगर यह बिल पास हो जाता है तो जिनके पास एक अरब डॉलर से अधिक की वैश्विक-संपत्ति है, उन्हें एक प्रतिशत वेल्थ टैक्स देना होगा, जिससे वाशिंगटन को 2.5 अरब डालर की वार्षिक आय होगी। इसका राशि का उपयोग कम आय और मध्यम आय वाले परिवारों को मदद पहुंचाने तथा छोटी कंपनियों और कम मुनाफा वाले व्यवसायों को क्रेडिट की पेशकश करने के लिए किया जाएगा। साथ ही इस राशि से शिक्षा, बच्चों क देखभाल, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक आवास और सार्वजनिक सुरक्षा सेवाओं को मदद की जाएगी। भारत की ही तरह वाशिंगटन में भी अरबपतियों की संख्या लगभग 100 है, जिनमें से 13 सुपर रिच हैं। इनमें जेफ बेजोस, बिल गेट्स, स्टीव बाल्मर और मैकेंज़ी स्कॉट शामिल हैं। वाशिंगटन विधान मंडल में यह बिल मुख्य रूप से इन्हीं 13 महा-कुबेरों को ध्यान में रखकर लाया गया है। इस नए टैक्स से जो राजस्व हासिल होगा, उसका 97 फीसदी इन्हीं लोगों से आएगा। दरअसल, इन 13 महा-कुबेरों ने लॉकडाउन के दौरान (मार्च, 2020 से जनवरी 2021 के बीच) लगभग 151 अरब डॉलर की कमाई की है। इस अवधि में इनकी संपत्ति में लगभग 41 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। वाशिंगटन के लोग इन पर वेल्थ टैक्स लगाने का समर्थन करते हुए कह रहे हैं कि इन महा-कुबेरों ने इस बीच जितना धन कमाया है, उससे न सिर्फ हमारे राज्य के बजट में कम पड़ रहे 3 अरब डालर के शार्ट फाल को 50 बार पूरा किया जा सकता है, बल्कि इसके बाद भी ये महा-कुबेर उतने ही अमीर बने रहेंगे, जितने वे महामारी के पहले थे।7 इस मांग ने वहां एक आंदोलन का रूप ले लिया है और इस बिल के शीघ्र ही पास हो जाने की उम्मीद है।

आपको याद होगा कि महामारी के शुरू में ही भारतीय राजस्व सेवा के कुछ तेज़-तर्रार, संवेदनशील अधिकारियों ने इस प्रकार का प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया था। उस समय दिल्ली, मुंबई, सूरत जैसे औद्योगिक नगरों से प्रवासी मज़दूर गाँव की ओर पैदल जाने के लिए मजबूर हुए थे और चलते-चलते थकान के कारण उनमें से सैकड़ों लोगों की मौत की ख़बरें आ रही थीं। इस बीच ताज़ा हवा के झोंके की तरह एक ख़बर यह भी आयी कि भारतीय राजस्व सेवा के 50 अधिकारियों ने ‘आईआरएस एसोसिएशन’ के ट्विटर एकाउंट पर एक रिपोर्ट तैयार करने की सूचना दी है। उन अधिकारियों ने उसे ‘फ़ोर्स’ (राजकोषीय विकल्प और कोविड-19 महामारी के लिए प्रतिक्रिया) शीर्षक नाम दिया था।

यह एक प्रकार से उन अधिकारियों की ओर से व्यक्तिगत तौर पर सरकार को दिए जाने वाले सुझावों का एक ख़ाका था, जिसमें कहा गया था कि “ऐसे समय में तथाकथित अत्यधिक अमीर लोगों पर बड़े स्तर पर सार्वजनिक भलाई में योगदान करने का सबसे अधिक दायित्व है”। उन अधिकारियों ने अमीर लोगों के लिए आयकर की दर को बढ़ाने और एक निश्चित राशि से अधिक की कमाई करने वाले लोगों पर चार फ़ीसद का कोविड राहत सेस ( Covid-Relief Cess) लगाने की सिफ़ारिश की थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि रिटर्न दाख़िल नहीं करने, स्रोत पर टैक्स (TDS) कटौती नहीं करने या उसे रोक कर रखने, फ़र्ज़ी नुक़सान के क्लेम के ज़रिये टैक्स देनदारी कम करके दिखाने के कई मामले सामने आते रहते हैं। ऐसे में एक करोड़ रुपये से अधिक की वार्षिक आय वाले लोगों पर 30 से बढ़ाकर 40 प्रतिशत टैक्स लगाया जाए। इसके अलावा पाँच करोड़ से अधिक की सालाना आय वाले लोगों पर प्रॉपर्टी टैक्स या वेल्थ टैक्स लगाया जाए।

वे अधिकारी न कम्युनिस्ट थे, न ही व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव चाहने वाले सामाजिक क्रांतिकारी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में सिर्फ़ इतना कहा था कि इस प्रकार का टैक्स थोड़े समय के लिए लगाया जा सकता है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी। ग़रीब और मध्यम वर्ग के हाथ में थोड़ा पैसा आ सकेगा और वाणिज्य-व्यापार की गाड़ी फिर से पहले की तरह दौड़ सकेगी। इस तरह की बातों की शुरुआत करना भी किस प्रकार एक नये सिलसिले को जन्म दे सकता है, इसे महा-धनकुबेरों से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।

‘फ़ोर्स’ की जानकारी सामने आते ही इन धन-पशुओं ने हडकंप मचा दिया। मीडिया में इन प्रस्तावों को अधिकारियों की अनुशासनहीनता कहा गया। अख़बारों में लेख लिखे गये, जिसमें बताया गया कि किस प्रकार इससे अमीर लोग भारत से नाराज़ हो जाएँगे और किस प्रकार इस प्रकार के प्रावधान से टैक्स की चोरी को बढ़ावा मिलेगा। सरकार भी तुरंत ही हरकत में आयी और इन अधिकारियों के ख़िलाफ़ जाँच बिठाई गयी। आनन-फानन में भारतीय राजस्व सेवा के तीन वरिष्ठ अधिकारियों को इसके लिए दंडित करते हुए उनके पदों से हटा दिया गया। सरकार ने कहा कि इस प्रकार की बात उठाने वाले युवा अधिकारियों के दोष से ज़्यादा दोष उन वरिष्ठ अधिकारियों का है, जिन्होंने उन्हें इस प्रकार की रिपोर्ट तैयार करने के लिए उकसाया।8 वे अधिकारी थे- आयकर विभाग, दिल्ली के मुख्य आयुक्त प्रशांत भूषण, कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के निदेशक प्रकाश दुबे और केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के उत्तर पूर्व क्षेत्र के निदेशक संजय बहादुर।

उन अधिकारियों की संवेदनशीलता, अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदारी को किसी ने नहीं सराहा। न उनके पक्ष में कोई संपादकीय लिखा गया, न ही टीवी चैनलों पर कोई बहस चली जिसमें यह सवाल उठाया जाता कि उन्होंने न तो सरकार की आलोचना की थी, न ही कोई टैक्स अपनी मर्ज़ी से लगा दिया था तो क्या सरकार को सुझाव देना भी अनुशासनहीनता मानी जानी चाहिए? क्या अगर कोई अधिकारी ग़रीब या मध्यम वर्ग पर किसी प्रकार के टैक्स का सुझाव देता, तब भी उसे अनुशासनहीनता मानी जाती?

अख़बार ही नहीं, इन अधिकारियों के पक्ष में न तो सिविल सोसाइटी संगठन आया, न ही कोई जातीय-धार्मिक संगठन। न तो कम्युनिस्ट पार्टियाँ उनके पक्ष में बोलीं, न समाजवादी, और न ही आम्बेकरवादी-सामाजिक न्यायवादी। किसी ने आज तक उनकी तारीफ़ में यह तक नहीं कहा कि उन कर्मठ अधिकारियों ने हमारे स्वप्नदर्शी कम्युनिस्ट साथियों और आँकड़ों की भविष्यवाणियाँ करने वाले अर्थशास्त्रियों से पहले समझ लिया था कि आने वाले महीनों में किस प्रकार धन का केन्द्रीकरण और तेज़ होगा।

बहरहाल, जिस प्रकार की नयी दुनिया का सपना ये धनकुबेर देखते हैं, उसमें जो एक चीज़ वे नहीं रखना चाहते हैं, वह है- सवाल। वे सवाल-विहीन दुनिया चाहते हैं। वे एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जिसमें सबके पास खाना, कपड़ा और छत हो। लेकिन यह सवाल न हो कि इतनी असमानता क्यों है, क्यों दुनिया के अधिकांश लोगों को जीवन भर ज़रूरत से ज़्यादा तनावग्रस्त रहना पड़ता है, अथवा यह कि क्यों किसी के चेहरे पर ख़ुशी नहीं दिखती? क्यों कुछ लोग रोज थोड़ा-थोड़ा मर रहे हैं? क्यों कुछ मानव समुदाय चुपचाप खत्म होते जा रहे हैं? अगर उनके सपनों से नयी दुनिया को बचाना है तो हमें हर क़ीमत पर ऐसे सवालों का वजूद बचाए रखना होगा, उनके ख़िलाफ़ जाने वाले हर विवेकसम्मत सवाल का स्वागत करना होगा, चाहे वे सवाल किसी भी ख़ेमे से उठ रहे हों।

प्रमोद रंजन की दिलचस्पी संचार माध्यमों की कार्यशैली के अध्ययन, ज्ञान के दर्शन और संस्कृति, समाज व साहित्य के उपेक्षित पक्षों के अध्ययन में रही है। वे असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। यह लेख सर्वप्रथम दिल्ली से प्रकाशित वेब पोर्टल ‘जन ज्वार’ में उनके साप्ताहिक कॉलम नई दुनिया’ में प्रकाशित हुआ है

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