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केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों व सरकारी सेवाओं में ओबीसी को मिले आरक्षण कोटा-लौटन निषाद

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  • लखनऊ, 29 सितम्बर,2020।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15(4) के तहत जो जातियाँ सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ी हैं, उन्हें ओबीसी के रूप में जाना जाता है। संविधान के अनुच्छेद-16(4) के तहत सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए समुदायों को प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई है।सपा पिछड़ावर्ग प्रकोष्ठ के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष चौ. लौटन निषाद ने कहा कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन का आधार नहीं, प्रतिनिधित्व सुनिश्चितिकरण का संवैधानिक व मौलिक अधिकार है।उन्होंने केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, केन्द्रीय शिक्षण -प्रशिक्षण संस्थानों व सरकारी सेवाओं में ओबीसी को आरक्षण नियमावली व अधिनियम के तहत कोटा दिए जाने की मांग किया है।

उच्च न्यायालय मद्रास के नीट में ओबीसी कोटा के सम्बंध में विगत दिनों आये निर्णय का सम्मान करते हुए केंद्र सरकार को बिना देरी किये अध्यादेश लाना चाहिए।
आरक्षण गरीबी उन्मूलन का साधन नहीं,प्रतिनिधित्व सुनिश्चितिकरण का संवैधानिक व मौलिक अधिकार है। निषाद ने बताया कि केन्द्र सरकार के 3 जनवरी, 2007 के आदेश के आलोक में 10 अप्रैल,2008 के मा.उच्चतम न्यायालय द्वारा केन्द्रीय संस्थानों व शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं-नीट, आईआईटी,केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश व नौकरियों में ओबीसी के 27 प्रतिशत आरक्षण को वैधता प्रदान करने के बाद भी ओबीसी के साथ नाइंसाफी की जा रही है।

केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में एसोसिएट प्रोफेसर पद पर तो ओबीसी को आरक्षण दिया जा रहा है,परन्तु प्रोफेसर व असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर आरक्षण न देना संविधान सम्मत नहीं है।2014 से 2020 तक के नीट,आईआईटी में एससी, एसटी को समानुपातिक आरक्षण तो दिया जा रहा है,पर ओबीसी की पूरी तरह उपेक्षा की जा रही है।नीट की आल इंडिया कोटे की प्रादेशिक प्रवेश कोटा में 2017 में 3705 में 1000 के सापेक्ष ओबीसी को मात्र 68, वर्ष 2018 में सिर्फ 18,वर्ष-2019 में 4064 सीटों में ओबीसी की 1097 के सापेक्ष मात्र 69 सीटें दी गयी।इस वर्ष 7981 में ओबीसी की 2154 सीटों के कोटा को शून्य कर दिया गया,जो संवैधानिक अधिकारों का खुला हनन व सामाजिक अन्याय है।उन्होंने कहा है कि नीट में ओबीसी कोटे के सम्बंध में मद्रास उच्च न्यायालय का जो निर्णय आया है,भारत सरकार व पीएम मोदी द्वारा तुरन्त संज्ञान लेकर अध्यादेश लाना चाहिए।

निषाद ने बताया कि मण्डल आरक्षण के तहत 52.10 फीसद ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण कोटा 13 अगस्त,1990 को देने की अधिसूचना जारी हुई, जो इंदिरा साहनी व अन्य बनाम भारत सरकार मामले के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के 16 नवम्बर,1992 के निर्णय के बाद आरक्षण अधिनियम-1994 के बाद मिलना शुरू हुआ,जो अभी आधा भी पूरा नहीं हुआ है।उन्होंने कहा कि 124वें संवैधानिक संशोधन द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) को फरवरी,2019 में 10 प्रतिशत आरक्षण का निर्णय हुआ,जिसे हर स्तर पर लागू कर दिया गया,लेकिन अभी भी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश,आईआईटी,एनईईटी में प्रवेश व प्राध्यापक पदों पर ओबीसी को आरक्षण नहीं दिया जा रहा है।

लखनऊ स्थित बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय(केन्द्रीय विश्वविद्यालय) में संसद द्वारा विश्वविद्यालय नियमावली में बिना संशोधन के ईडब्ल्यूएस को 10 प्रतिशत आरक्षण कोटा दे दिया गया,परन्तु ओबीसी की उपेक्षा कर दी गयी है।जब ईडब्ल्यूएस को बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ में 10 प्रतिशत आरक्षण कोटा दे दिया गया तो ओबीसी को मण्डल कमीशन के आधार पर प्रदत्त आरक्षण कोटा क्यों नहीं दिया गया? केंद्र सरकार वादा करने के बाद भी सेन्सस-2021 में ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने से पीछे क्यों हट गई?उच्च न्यायपालिका में कॉलेजियम सिस्टम से न्यायाधीशों का मनोनयन बन्द कर लोक सेवा आयोग व संघ लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षा की तर्ज पर राष्ट्रीय न्यायिक सेवा चयन आयोग द्वारा करने का नियम क्यों नहीं बना रही?कॉलेजियम सिस्टम से न्यायाधीशों के मनोनयन से तुच्छ जातिवाद व भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिलता है,जिसका परिणाम है कि उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय में एक-दो जाति के कुछ परिवारों का ही दखल है।

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