पशुओं को खुरपका, मुंहपका, खुरहा रोगों से बचाव के लिए टीकाकरण का अभियान 10 फरवरी से…..
1 min readमनीष शर्मा,8085657778
मुंगेली/पशुपालन विभाग के उपसंचालक डाॅ. ए.के. मरकाम ने आज यहां बताया कि जिले में पशुओं को खुरपका, मुंहपका, खुरहा रोगों से बचाव के लिए टीकाकरण का अभियान 10 फरवरी से प्रारंभ होगा और यह अभियान 10 मार्च तक चलेगा। उन्होने इस अभियान के दौरान जिले के समस्त पशुपालकों को पशुओं में होने वाले खुरपका, मुंहपका, खुरहा रोग या एफएमडी पशु में होने वाले संक्रामक रोग से बचाव के लिए टीकाकरण कराने की अपील की है। उन्होने बताया कि पशुओं में होने वाली उक्त बीमारी संक्रामक रोग है जो विषाणु के द्वारा फैलता है। इस रोग से ग्रसित पशुओं के मुंह के अंदर जीभ में छाले हो जाते है, लार बहने लगती है और दर्द के कारण पशु चारा, भूसा नहीं खा पाते। इसी तरह रोग ग्रसित पशुओं के खुरों के बीच में छाले हो जाते है। जिसकी वजह से पशु ठीक से चलने में असमर्थ हो जाते है। तेज बुखार और दर्द की वजह से पशुओं की कार्य क्षमता प्रभावित हो जाती है। साथ ही पशुओं का दुग्ध उत्पादन प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होता है। रोग होने के बाद उपचार कराने पर पशु के स्वस्थ होने में बहुत समय लगता है तथा उपचार नहीं होेने की स्थिति में पशु की मृत्यु भी हो जाती है। टीकाकरण के द्वारा गाय भैंसो को खुरहा रोग से बचाया जा सकता है। अभियान के अलावा पशुपालन विभाग के द्वारा हर 6 माह में गाय भैंसो का निःशुल्क एफएमडी का टीकाकरण किया जाता है। उन्होने पशुपालकों को अपने गाय भैंसो में एफएमडी का टीकाकरण अवश्य कराने का आग्रह किया है।
पशुओं में मुंहपका खुरपका रोग के लक्षण तथा बचाव
पशुओं में मुंहपका-खुरपका रोग विभक्त खुर वाले पशुओं का अत्यन्त संक्रामक एवं घातक विषाणुजनित रोग है। यह गाय, भैंस, भेंड़, बकरी, सुअर आदि पालतू पशुओं एवं हिरन आदि जंगली पशुओं को होता है।
रोग के कारण
यह रोग पशुओं को एक बहुत ही छोटे आंख से न दिख पाने वाले कीड़े द्वारा होता है। जिसे विषाणु या वायरस कहते हैं। मुंहपका-खुरपका रोग किसी भी उम्र की गायें एवं उनके बच्चों में हो सकता है। इसके लिए कोई भी मौसम निश्चित नहीं है। कहने का मतलब यह है कि यह रोग कभी भी गांव में फैल सकता है। हालांकि गाय में इस रोग से मौत तो नहीं होती फिर भी दुधारू पशु सूख जाते हैं। इस रोग का क्योंकि कोई इलाज नहीं है इसलिए रोग होने से पहले ही उसके टीके लगवा लेना फायदेमन्द है।
लक्षण
इस रोग के आने पर पशु को तेज बुखार हो जाता है। बीमार पशु के मुंह, मसूड़े, जीभ के ऊपर नीचे ओंठ के अन्दर का भाग खुरों के बीच की जगह पर छोटे-छोटे दाने से उभर आते हैं, फिर धीरे-धीरे ये दाने आपस में मिलकर बड़ा छाला बनाते हैं। समय पाकर यह छाले फैल जाते हैं और उनमें जख्म हो जाता है। ऐसी स्थिति में पशु जुगाली करना बंद कर देता है। मुंह से तमाम लार गिरती है। पशु सुस्त पड़ जाते है। कुछ भी नहीं खाता-पीता है। खुर में जख्म होने की वजह से पशु लंगड़ाकर चलता है। पैरों के जख्मों में जब कीचड़ मिट्टी आदि लगती है तो उनमें कीड़े पड़ जाते हैं और उनमें बहुत दर्द होता है। पशु लंगड़ाने लगता है। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन एकदम गिर जाता है। वे कमजोर होने लगते हैं। समय पाकर व इलाज होने पर यह छाले व जख्म भर जाते हैं परन्तु संकर पशुओं में यह रोग कभी-कभी मौत का कारण भी बन सकता है। यह एक विषाणु जनित बीमारी है जो फटे खुर वाले पशुओं को ग्रसित करती है। इसकी चपेट में सामान्यत: गो जाति, भैंस जाति, भेड़, बकरी एवं सूकर जाति के पशु आते हैं। यह छूत की बीमारी है।
रोग के बचाव व उपचार
रोगग्रस्त पशु के पैर को नीम एवं पीपल के छाले का काढ़ा बनाकर दिन में दो से तीन बार धोना चाहिए।
प्रभावित पैरों को फिनाइलयुक्त पानी से दिन में दो-तन बार धोकर मक्खी को दूर रखने वाली मलहम का प्रयोग करना चाहिए।
मुँह के छाले को 1 प्रतिशत फिटकरी अर्थात 1 ग्राम फिटकरी 100 मिली लीटर पानी में घोलकर दिन में तीन बार धोना चाहिए। इस दौरान पशुओं को मुलायम एवं सुपाच्य भोजन दिया जाना चाहिए।
पशु चिकित्सक के परामर्श पर दवा देें।