संत, समाज सुधारक एवं गुरू … बाबा घासीदास
1 min read18 दिसंबर गुरु घासी दास जयंती विशेष
सत म धरती खड़े, अउ सत म खड़े अगास.. सत म सुरूज चांद खड़े कह गए घासी दास
घासीदास के जीवन और सतनाम
छत्तीसगढ़ क्षेत्र में सतनाम धर्म के संस्थापक गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसम्बर 1756 (माघ मास की पूर्णिमा तिथि) को तत्कालिन जिला बिलासपुर के गिरोध ग्राम में पिता मंहगूदास और माता अमरौतिन के पुत्र के रूप में हुआ। यह गांव रायपुर जिले के अन्तर्गत सोनाखान जंगल के पास है। घासीदास के पूर्वजों के बारें में दो मत मिलते है जिसमें एक मत के अनुसार सतनामी परिवार में एक परिवार मेदनीदास का भी था। जो पंजाब से यहां तक आए थे। मेदनीदास के पुत्र महंगूदास हुए जो मुगल के प्रताडना के कारण पंजाब से गिरोध में आकर बस गये थे। दूसरे मत के अनुसार गिरोध में एक अत्यन्त गरीब, बंधुआ मजदूर घसिया परिवार में जन्म माना जाता है। बचपन गरीबी बीतने के कारण उन्हे भी कृषि काम सीखना व करना पड़ा। खेती-बाड़ी के काम सीखते ही उनका विवाह सिरपूर के अंजोरी गांव के देवदत्त की पुत्री सफुरा के साथ कर दिया। सफुरा और घासीदास के पुत्र अमरदास, बालकदास, आगरदास, अडगड़िया और बेटी सुभद्रा हुई। कुछ मत के अनुसार क्षेत्र में अकाल के प्रभाव के कारण लोग काम के लिए उडिसा के गये थे। जिसमें घासीदास का भी परिवार शामिल था।
वहां उनकी मुलाकात कबीर पंथ के रैदास के शिष्य जगजीवनदास से हुई। कुछ मत के अनुसार घासीदास गांव वालो के साथ तीर्थ दर्शन करने जगन्नाथ पुरी जा रहें थे। रास्तें में उनकी मुलाकात जगजीवनदास से हुई और वही उनसे प्रभावित होकर से गांव वालो व परिवार को छोड़ कर आत्माज्ञान की प्राप्ति के लिए सोनाखान के जंगल के स्थित छाता पहाड़ के नीचे तप कर आत्म ज्ञान प्राप्त कर अवरा-धवरा(आंवला और खैर) पेड़ के नीचे शिष्यों-अनुयायियों को ज्ञान देने लगे। लेकिन समाज में व्याप्त बुराइयों के कारण लोग उनकी निंदा करते थे। सत्य के प्रमाण देने के लिए किए चमत्कारिक कार्याे के लिए लोग उन्हे व उनके परिवार को टोनहा, बैगा, तांत्रिक, पंगहा कह कर प्रताड़ित करते थे। समाज में व्याप्त कुरितियों, पीढ़ादायक व्यवस्था विरोध में लोगों को जागरूक करने के कारण उन्हे क्षेत्र से बाहर कर दिया और वह गिरोध छोड़कर सहपरिवार भंडारपुरी आ गये जहां उन्हे विधवा लोहारिन के घर पर आश्रय मिला और सतनाम का प्रचार करते रहे। घासीदास जी ने 20 फरवरी 1850 को देह त्याग दिया। घासीदास के पुत्रों ने उनके उपदेशो का प्रचार निरंतर रखा। गुरू के अनुयायी उन्हे अवतारी और अमर मानते हैं।
सतनाम को आधिकारिक मान्यता
घासीदास के विचार से प्रभावित होकर समाज के सताए हुए लोगों ने जिनमें तत्कालिक चमार, सुनार, लोहार, गडरिया, यादव, अहीर, तेली, कुम्हार , गोंड़, कंवर, घसिया जाति के लोगों ने सतनाम को जाति और धर्म मान लिया। घासीदास के वंशज अगमदास ने सी.पी.बरार के तत्कालिक गर्वनर को 1924 में पत्र लिखा, 1926 में सतनामी जाति/सतनाम समुदाय के मान्यता पर सतनाम नाम का पहचान मिला।
घासीदास के उपदेश
घासीदास के उपदेशों में सात उपदेशों को प्रमुख माना जाता हैं –
- सत की राह पर चलना, सतनाम पर विश्वास रखना ।
- मूर्तिपूजा का विरोध ।
- जीव हत्या , बलि और मांसाहार का विरोध ।
- जाति- पाति के प्रपंच पर नही पडना।
- स्त्रियों का सम्मान करना ।
- जानवरों पर अत्याचार न करना।
- व्यसन से मुक्ति के उपदेश दिए थे।
सफेद ध्वजा का चयन
सतनाम धर्म के प्रतीक के लिए सफेद ध्वज का चयन समाज के द्वारा किया, जो सत्य का प्रदर्शित करता है । सत्य पर अडिग रहने वाले बाबा घासीदास के प्रतीकात्मक जोड़ा जैतखाम में सफेद ध्वज चढाया जाता है।
सत्य पर अड़िग विचार को आसमान की ऊचाइयों पर बुलंद करने के लिए गिरोधपुरी में 77 मीटर (243 फीट) ऊंचा जैतखाम बनवाया गया है।